Where have we lost the happiness?
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थक गयी हूँ चलते चलते
सैकड़ों मील जैसे बंजर से रेगिस्तान में
फिर भी उठ रहे हैं कदम
जाने किस गुमान में
ज़िंदा जब तक हूँ
उूबूँगी नहीं…मुझे यक़ीन हैं मैं “डूबूँगी नहीं”
जिस किनारे की ख्वाहिश की थी
न मिल पाये कभी शायद
ज़िन्दगी का रुख मेरे हिसाब से
न बदल पाये शायद
तो क्या हुआ …कहीं किसी और किनारे पहुँचूंगी तो सही
विश्वास है स्वयं पर इतना की ” मैं डूबूँगी नहीं” “कभी नहीं” !
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